जब बस की अपर सीट ‘स्टेट्स सिंबल’ हुआ करती थी

बात बहुत पुरानी नहीं है, आज से कोई छः दशक पहले, कारें केवल उच्च मध्य वर्ग की शानो-शौकत की चीज हुआ करती थी, मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोग तो बस में अपर सीट का टिकट देकर ही अपनी हैसियत का प्रदर्शन करते थे. तब बसों में चाहें व रोडवेज की हों अथवा पहाड़ों के सफर की हमसफर रही केएमओयू की बसें, ड्राइवर के ठीक पीछे की एक या दो सीटें, जिनकी क्षमता आठ-दस यात्रियों की होती, अपर क्लास कहलाती थी और इस क्लास के लिए प्रवेश का दरवाजा भी आगे की ओर अलग से होता तथा बकायदा जाली के पार्टेसन से ऐसी व्यवस्था रहती कि लोअर क्लास में बैठा यात्री अन्दर ही अन्दर अपर क्लास में प्रवेश नहीं कर पाता था.
(Transportation in Uttarakhand Memoir)

श्रेणी विभाजन की यह मानसिकता ब्रिटिश सोच की शायद ऊपज रही होगी. अपर क्लास की टिकट की दरें लोअर क्लास की अपेक्षा लगभग डेढ़ गुना ज्यादा होती थी. नतीजतन कभी-कभी लोअर क्लास ठसाठस भरी होने के बावजूद अपर क्लास में सीटें खाली ही जाती. भीड़ बढ़ने की दशा में अपर क्लास का टिकट लेना कभी-कभी सामान्य यात्रियों की मजबूरी बन जाती.

साठ के दशक तक कुमाऊॅ के सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों की यात्रा के लिए केमू की बसों पर ही निर्भरता थी. बताते हैं कि केमू बस सर्विस की स्थापना 1939 में संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री पं0 गोबिन्द बल्लभ पन्त की पहल पर की गयी. इसका 9 सदस्यीय एक निदेशक मण्डल बनाया गया तथा काठगोदाम में इसका मुख्यालय बना.

मैदानों से पर्वतीय क्षेत्रों में प्रवेश के लिए काठगोदाम के अलावा रामनगर व टनकपुर शहरों से भी जाया जाता था इसलिए रामनगर व टनकपुर में भी केमू के दफ्तर खोले गये. रोडवेज तो इसके आठ वर्ष बाद 1947 में अस्तित्व में आयी. केमू की बसें तब अधिकतम बागेश्वर तक की लम्बी दूरी ही एक दिन में बमुश्किल पूरी कर पाती थी.

सड़कें अधिकांशतः कच्ची तथा ऊबड़ खाबड़ हुआ करती तथा मोटर तकनीक भी आज तरह विकसिंत नहीं थी. चढ़ाई चढ़ते वक्त मोटरें हांफ जाती और इंजन में पानी डालकर उसे ठण्डा किया जाता. प्रारम्भिक वर्षों में आगे से चपटे इंजन वाली बेडफोर्ड बसें प्रायः हुआ करती. जाड़ों के दिनों में गाड़ियों का डीजल जम जाना आम समस्या थी. डीजल टैंक के नीचे आग जलाकर गाड़ी स्टार्ट हो पाती.
(Transportation in Uttarakhand Memoir)

तब आज की तरह इलैक्ट्रोनिक हॉर्न चलन में नहीं था, एअर हॉर्न का प्रयोग होता था. धातु के एक घुमावदार पाइप के पिछले छोर पर रबर की बॉलनुमा लगी होती, जिसे पाइप के अन्दर डाला जाता. जब कि आगे के हिस्से में भैंस के सींगनुमा पाइप आगे से ज्यादा चैड़़ाई में भौंपू की तरह खुला रहता. जानवर की सींग (हॉर्न) के आकार में होने से ही शायद इसका नाम हॉर्न रखा गया होगा.

आज की तरह केमू की बसें विविध बहुरंगी न होकर केमू की बसों का एक निश्चित रंग गहरा समुद्री हरा होता था. जो दूर से पहचानी जाती. जिसमें कुछ बसें चार टायर की और कुछ छः टायर की हुआ करती थी. लोअर क्लास की बैठने के लिए बस की खिड़कियों से लगती हुई आमने-सामने दो लम्बी सींटे हुआ करती थी. बीच में यात्रियों का सामान व गाड़ी का टायर आदि पड़ा रहता. खिड़की से बाहर झांकने के लिए गर्दन घुमानी पड़ती थी, जो काफी असुविधाजनक होता और थोड़ी सफर में ही गर्दन अकड़ जाती. क्योंकि सीटें बस की साइड से चिपकी होती थी, इसलिए लोअर क्लास का प्रवेश द्वार पीछे की तरफ बीचों बीच में होता.
(Transportation in Uttarakhand Memoir)

केवल बसें ही नहीं तब केमू के ट्रक भी चला करते थे. वे भी गहरे समुद्री हरे रंग में ही होते. पहाड़ का लीसा तथा स्लीफर का ढुलान इन्हीं ट्रकों से हुआ करता. तब रेलवे लाइनों में बिछाने के लिए चीड़ के स्लीफरों का निर्यात मैदानी क्षेत्रों को बहुतायत से होता. सहारनपुर की स्टार पेपर मिल के लिए सोख्ते का ढुलान करने वाले तथा लकड़ी के प्रमुख ठेकेदार धर्मवीर तथा रनवीर  आदि ठेकेदारों के ट्रक चला करते थे.

आज की तरह शेयरिंग टैक्सी का जमाना वह नहीं था. टैक्सियां बुकिंग पर ही जाती थी, ये बात दीगर है कि तब रोडवेज के पास भी लग्जरी टैक्सियां हुआ करती थी. प्राइवेट टैक्सियां बहुत सीमित मात्रा में थी. मुझे याद है कि जब हमारे गांव के एक ग्रामीण नैनीताल से टैक्सी उपलब्ध न होने पर 25 किमी की दूरी तय करने के लिए एक मात्र यात्री पूरी रोडवेज की बस बुक कराकर ले आये थे. ये बात अलग है कि वे पैसे वाले थे और यह सब उन्होंने नशे की हालत में किया लेकिन तब यातायात व टैक्सियों की अनुपलब्धता के लिए यह एक बानगी बनकर रह गयी.

टैक्सियों में मुख्यतः अम्बेसेडर तथा फियट (पद्मिनी) कारें होती  जब कि सरकारी वाहनों के रूप में ज्यादातर जीपों का इस्तेमाल ही होता था। जो पहाड़ के तब के ऊबड़ खाबड़ रास्तों के लिए ज्यादा मुफीद भी हुआ करती. तिरपाल से ढकी इन जीपों में कैरियर की सुविधा नहीं थी इसलिए हर जीप के पीछे एक ट्राली जोड़ने का विकल्प था जिसमें होल्डॉल आदि रखे जाते. तब कहीं पर भी यात्रा के लिए यात्री अधिकांशतः अपना बिस्तरा भी साथ लेकर चलते थे.

दुपहिया वाहनों में मैदानी क्षेत्रों में मोटरसाइकिल के अलावा साइकिल का उपयोग होता था. मोटरसााइकिल को भी बाइक के बजाय आम लोग फटफटिया ही पुकारते. बजाज के चेतक का स्कूटर बहुत बाद में बाजार में आया.

रोडवेज बसों का परिचालन पहाड़ के कुछ गिने-चुने मार्गों पर ही होता था. हल्द्वानी तथा नैनीताल से रानीखेत, मासी, पिथौरागढ़ तथा भीमताल, रामगढ़, मुक्तेश्वर आदि जगहों के लिए सीमित संख्या में बसों का परिचालन होता था. शेष मार्गों पर केमू की बसों का ही संचालन होता था. हाँ, तब रोडवेज के ट्रक भी चला करते थे लेकिन वे भी उन्हीं मार्गों से सामान उठा सकते थे, जो मार्ग रोडवेज को आबंटित थे.
(Transportation in Uttarakhand Memoir)

हल्द्वानी से अथवा रास्ते के किसी स्टेशन से आपको केमू की बस से भवाली, गरमपानी आदि का सफर करना होता था, तो केमू रूट जो खैरना के बाद शुरू होता, उससे आगे लोहाली आदि का टिकट भुगतान कर यात्रा की जा सकती थी. जब कि हल्द्वानी से अल्मोड़ा के लिए रोडवेज बस का रूट वाया रानीखेत हुआ करता. आज तो लगभग सभी रूटों पर केमू तथा रोडवेज की बसें बराबर संचालित हो रही हैं, जिससे यातायात बहुत सुगम हो गया है, साथ ही शेयरिंग टैक्सियों ने इसे और आसान कर दिया है.

उन्नीसंवी शताब्दी के अन्त में ब्रिटिश शासन ने नैनीताल को रानीखेत छावनी से जोड़ने के लिए सड़क मार्ग की आवश्यकता महसूस की और वर्ष  1895 में खैरना में कोसी नदी पर पुल निर्माण कर रानीखेत को सड़क मार्ग से जोड़ा गया, लेकिन अल्मोड़ा जाने के लिए रानीखेत होकर ही लगभग दुगुनी यात्रा करनी होती. बहुत वर्षों बाद खैरना से अल्मोड़ा को जोडने के लिए सुयालबाढ़ी होकर मोटरमार्ग का निर्माण किया गया, इससे पहले ही बद्रीनाथ जाने वाले तीर्थयात्री पैदल ही काकड़ीघाट से कर्णप्रयाग होते हुए बद्रीनाथ की यात्रा पर निकला करते थे. जिसकी होल्डिंग आज भी काकड़ीघाट- कर्णप्रयाग मार्ग के नाम से लगी है हालांकि अब इस पैदल मार्ग पर भी गांवों को जोड़ने वाली लिंक रोड का निर्माण हो चुका है.

प्रारंभिक वर्षों में खैरना- अल्मोड़ा मार्ग बहुत संकरा तथा कच्चा था जिसमें दो गाड़ियों के साथ निकलने की क्षमता नहीं थी और गेट सिस्टम से परिवहन का संचालन होता था. सुबह 9 बजे, 11 बजे, 1 बजे, 3 बजे  और 5 बजे गेट खुला करता. माना कि अल्मोड़ा से कोई गाड़ी 9 बजे के गेट से निकलती तो उसी समय 9 बजे के गेट से खैरना से अल्मोड़ा के लिए वाहन छोड़े जाते. सुयालबाढ़ी लगभग मध्य में पड़ता इसलिए जब तक खैरना वाले सारे वाहन सुयालबाढ़ी नहीं पहुंच जाते तब तक अल्मोड़ा की ओर से आने वाली गाड़ियों को सुयालबाढ़ी पर प्रतीक्षा करना लाजमी था. यही बात खैरना गेट पर भी लागू होती. बसों के इस प्रकार सुयालबाढ़ी व खैरना में प्रतीक्षा करने से यात्रियों के जलपान के लिए सुयालबाढ़ी तथा खैरना कस्बे विकसित हुए.

सुयालबाढ़ी व खैरना-गरमपानी का रायता, पकौड़ी आदि मशहूर हुआ करता था. एक समय में सुयालबाढ़ी कस्बे में गेट सिस्टम से बाहरी ग्राहकों की जो आमद थी रोड के चैड़ीकरण व गेट सिस्टम समाप्त होने के बाद सुयालबाढ़ी स्थानीय लोगों का बाजार बनकर सिमट कर रह गया. दोगांव, छड़ा, धौलछीना, कोसी, टोटाम आदि ऐसे कई स्थान हैं जो बसों के जलपान के केन्द्र बनकर विकसित हुए हैं.
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

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June 04, 2020 at 09:18AM
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