कुमाऊं की होली : हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा

प्रमोद साह
यूं तो होली समूचे भारत में धूमधाम से मनाया जाने वाला त्यौहार है . जो फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन रंगों के साथ परवान चढ़ता है और रंग खेलकर ,गले मिलकर लोग साल भर के गिले-शिकवे भूल जाते हैं . और फिर जीवन में भाईचारे और संबंधों के नए अध्याय प्रारंभ होते हैं .
लेकिन कुमाऊं अंचल में होली मात्र 3 दिनों का त्यौहार नहीं है इसकी तैयारी 3 माह से प्रारंभ हो जाती है . विधि विधान के साथ पौष मास के रविवार से होली गायन कुमाऊं अंचल के गांवो में प्रारंभ हो जाता है .गहरी सर्द रातें गुनगुनी होने लगती हैं. बसंत पंचमी के दिन से तो महिलाओं की होलियां भी प्रारंभ हो जाती है. हालांकि देश में ब्रज प्रदेश और बरसाने की होली बहुत प्रसिद्ध है लेकिन अगर गहराई से देखा जाए तो कुमाऊं अंचल की होली बनारस, बृज प्रदेश इन सबसे अलग और लोक के रंगों में बसी हुई है.
#होलीकीविधाएं : यहां होली की चार विधाएं हैं खड़ी होली ,बैठकी होली , महिलाओं के होली ,ठेठर और स्वांग ! खड़ी होली का अभ्यास आमतौर पर पटांगण ( गांव के मुखिया के आंगन ) में होता है . यह होली अर्ध -शास्त्रीय परंपरा में गाई जाती है जहां मुख्य होल्यार होली के उस मुखड़े को गाते हैं. और बाकी होल्यार उसके चारों ओर एक बड़े घेरे में उस मुखड़े को दोहराते हैं . ढोल नगाड़े नरसिंग उसमें संगीत देते हैं. घेरे में कदमों को मिलाकर नृत्य भी चलता रहता है कुल मिलाकर यह एक अलग और स्थानीय शैली है . जिसकी लय अलग-अलग घाटियों में अपनी अलग विशेषता और विभिन्नता लिए है .
खड़ी होली ही सही मायनों में गांव की संस्कृति की प्रतीक है. यह आंवला एकादशी के दिन प्रधान के आंगन में अथवा मंदिर में चीर बंधन के साथ प्रारंभ होती है .द्वादशी और त्रयोदशी को यह होली अपने गांव के निशाण अर्थात विजय ध्वज ढोल नगाड़े और नरसिंग जैसे वाद्य यंत्रों के साथ गांव के हर मवास के आंगन में होली का गीत गाने पहुंचकर शुभ आशीष देती हैं.
उस घर का स्वामी अपनी श्रद्धा और हैसियत के अनुसार होली में सभी गांव वालों का गुड़ , आलू तथा अन्य मिष्ठान के साथ स्वागत करता है .चतुर्दशी के दिन क्षेत्र के मंदिरो में होली पहुंचती है ,खेली जाती है ।चतुर्दशी और पूर्णिमा के संधिकाल जबकि मैदानी क्षेत्र में होलिका का दहन किया जाता है यहां कुमाऊं अंचल के गांव में, गांव के सार्वजनिक स्थान में चीर दहन होता है .अगले दिन छलड़ी यानी गिले रंगो और पानी की होली के साथ होली संपन्न होती है
बैठकी होली: हारमोनियम और तबला के साथ शास्त्रीय संगीत की विधा में बैठकर होली गायन की परंपरा अद्भुत है स्थानीय परंपराओं में यहां हर शहर और गांव में दो-चार अद्भुत होल्यार हुए हैं . जो न केवल होली के गीत बनाते हैं बल्कि उसकी डायरी तैयार रखते हैं और इस शानदार परंपरा को रियाज के जरिए अगली पीढ़ी तक भी पहुंचाते हैं.
#महिलाओंकीहोली : महिलाओं की होली बसंत पंचमी के दिन से प्रारंभ होकर रंग के दूसरे दिन टीके तक प्रचलित रहती है यह आमतौर पर बैठकर ही होती है . ढोलक और मजीरा इसके प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं . महिलाओं की होली शास्त्रीय , स्थानीय और फिल्मी गानों को समेट कर उनके फ्यूजन से लगातार नया स्वरूप प्राप्त करती रहती है . 25- 30 वर्ष पूर्व जब समाज में होली के प्रति पुरुषों का आकर्षण कम हो रहा था और तमाम मैदानी क्षेत्र की बुराइयां पर्वतीय होली में शामिल हो रही थी .तब महिलाओं ने इस सांस्कृतिक त्यौहार को न केवल बचाया बल्कि आगे भी बढ़ाया .
#स्वांगऔरठेठर : स्वांग और ठेठर होली में मनोरंजन की सहायक विधा है इसके बगैर होली अधूरी है यह विधा खासतौर पर महिलाओं की बैठकी होली में ज्यादा प्रचलित है . जिसमें समाज के अलग-अलग किरदारों और उनके संदेश को अपनी जोकरनुमा पोशाक और प्रभावशाली व्यंग के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है संगीत के मध्य विराम के समय यह स्वांग और ठेठर होली को अलग ऊंचाई प्रदान करता है कालांतर में होली के ठेठर और स्वांग की विधा ने कुछ बड़े कलाकारों को भी जन्म दिया.
यूं तो कुमाऊ अंचल के गांव-गांव में होली का त्यौहार बढ़-चढ़कर परम्परागत रूप से ही मनाया जाता है . लेकिन मुख्य रूप से अल्मोड़ा द्वाराहाट बागेश्वर गंगोलीहाट पिथौरागढ़ ,पाटी , चंपावत .नैनीताल कुमायूं की संस्कृति के केंद्र रहे हैं जहां के सामाजिक ताने-बाने में वह तत्व मौजूद हैं जो संस्कृति और उसके महत्व को समझता और जानता है कि संस्कृति ही समाज को स्थाई रूप से समृद्ध करती है . इन कस्बों में न केवल होली का रंग बल्कि रामलीला, दिवाली जैसे त्यौहार भी बड़ी संजीदगी और पारंपरिक रूप से मनाए जाते हैं और यह कस्बे हमारी संस्कृति के मुख्य केंद्र है
#होलीकेविकासमेंक्लबोंकायोगदान : हर समाज में ऐसा समय आता है जब उसकी परंपराएं कमजोर होती हैं और तब बाह्य विकृतियां संस्कृति को जकडने का प्रयास करती हैं. कुमाऊं के अलग-अलग कस्बों में यह समय अलग-अलग समय पर आया तब जागरूक नागरिकों ने संस्था और क्लब बनाकर अपनी संस्कृति को न केवल जिंदा रखा बल्कि नए और ऊर्जावान सोपान प्रदान किए. इन क्लबो में सर्वाधिक चर्चित है हुक्का क्लब अल्मोड़ा जिसकी स्थापना 1906 में स्वर्गीय चिरंजी लाल शाह द्वारा की गई इस क्लब ने पूरे अल्मोड़ा शहर के सांस्कृतिक स्वरुप को आज तक न केवल बचाए रखा है बल्कि विस्तार भी दिया है वर्तमान में प्रभाकर साह ,शिवचरण पांडे यहां के मुख्य होल्यार हैं .
#हिमालयसंगीतशोधसंस्थान : यह वर्ष 1990 का साल था जब हल्द्वानी की उसर भूमि में साहित्य और संस्कृति का रस घोलने वाले , बहुमुखी प्रतिभा के धनी स्वर्गीय आनंद बल्लभ उपरेती जो गंगोलीहाट के रहने वाले थे और जिनकी स्मृतियों में हमेशा गांव की होली जिंदा रहती थी .यहां हल्द्वानी में ऐसा कुछ था नहीं ,यह बात उन्हें बहुत बेचैन करती थी .परेशान करती थी . अपनी परेशानी का हल उन्होंने हिमालय संगीत शोध संस्थान की स्थापना कर निकाला .यहीं से हल्द्वानी में बैठकी होली की शानदार परंपरा का प्रारंभ हुआ .अपने दो पुत्र श्री पंकज उप्रेती गायन एवं हारमोनियम में तैयार किया तो छोटे पुत्र धीरज उप्रेती को तबले में संगत देने का उस्ताद बना दिया . बेटी मीनाक्षी ने भी संगीत की साधना की कुल मिलाकर पूरा परिवार हल्द्वानी और आसपास संगीत के विस्तार में शामिल हो गया .इस वर्ष हिमालय संगीत शोध संस्थान का तीसवा होली वर्ष है . आपकी बहन मीनाक्षी जोशी की स्कूली बच्चों में प्रार्थना “देण है जये ओ मां सरस्वती ” वायरल होकर खूब धूम मचा रही है . उप्रेती परिवार का संगीत एवं संस्कृति के संरक्षण में योगदान अतुलनीय है ।
#नैनीतालसमाचार कीहोली : नैनीताल और पहाड़ की चेतना तथा संस्कृति को बचाने और बढ़ाने में नैनीताल समाचार का बड़ा योगदान है नैनीताल समाचार के पटांगण की होली का 31 वा साल है आज से 31 वर्ष पूर्व नैनीताल में होली के विकृत हो रहे रंगों के बीच स्वर्गीय गिरीश तिवारी गिर्दा , प्रोफेसर शेखर पाठक राजीव लोचन साह ,के के साह , विशंभर साह सखा , स्वर्गीय चंद्र लाल साह बूजू आदि ने होली की जो शानदार शुरुआत की वह आज भी जारी है .होली के बीच समाज और सामाजिक आंदोलनों को भी नैनीताल समाचार की होली ने दिशा दी गिर्दा के
होली के आशीष आंदोलन को भी ताकत देते रहे .
“घो कसी बरख जैंता घर जानू भल है रै ये.
घर बगी, गौं गाड जैंता ,घर जानू भली है रये “
हो हो होलक रे ….
#युग मंच का होली महोत्सव : वर्ष 1992 से 95-96 तक नैनीताल की होली को मानो ग्रहण लग गया . घरों में कुछ बैठक होली और महिलाओं की होली जारी थी लेकिन ठीक छलडी के दिन कीचड़ ,काला रंग, कपड़े फाड़ना जैसी बुराइयां नैनीताल की सड़कों में आम हो गई. तब नाटकों के लिए समर्पित युग मंच के जहूर आलम डॉक्टर विजय कृष्ण ,गिर्दा ,सखा दाज्यू.आदि होली के स्वरूप को बचाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया और अल्मोड़ा बागेश्वर चंपावत लोहाघाट से होल्यारों के दल बुलाकर प्रतियोगिता प्रारंभ की धीरे-धीरे युग मंच की होली आज नैनीताल की पहचान बन गई है। यहां पाटी से राजेंद्र गहतोड़ी के नेतृत्व में और बाराकोट लोहाघाट से नागेंद्र जोशी के नेतृत्व में हर वर्ष बड़ा होलियारो का दल आता है. जो खड़ी होली की अद्भुत शैली को यहां नैना देवी मंदिर तथा अन्य मंचों पर प्रस्तुत करता है.युगमंच द्वारा होली की सभी विधाओं खड़ी होली ,बैठकी होली ,ठेठर स्वांग की प्रतियोगिताएं प्रारंभ की जाती है. जो पूरे 5 से 7 दिन चलती है और कुल मिलाकर युगमंच की होली ने नैनीताल को नई पहचान दी है .
आज जब समाज को नई दिशा देने की बात आती है तो समाज को स्थाई और नई दिशा देने का काम हमेशा संस्कृति ने ही किया है इस लिहाज से पिछले कुछ सालो में कुमाऊं अंचल में होली का योगदान अभूतपूर्व है . जिसकी दस्तक अब देहरादून में भी सुनाई देने लगी है ।


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